गुरुवार, 1 मार्च 2018

क्या निजीकरण हर मर्ज़ की दवा है ?


      फिक्की अध्यक्ष  ने  वित्त मंत्री अरुण जेटली से बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू करने का आग्रह किया था. एसोचैम भी सरकार से सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों में हिस्सेदारी कम करने की सलाह दे चुका है. वित्त मंत्री ने यह कहकर "इसके  लिए राजनीतिक मतैक्य आवश्यक है, एवं बैंकिंग  रेगुलेशन एक्ट में संशोधन करना होगा" चर्चाओं पर विराम लगा दिया.

     पर क्या केवल राजनीतिक सहमति का सम्भव न होना  ही इंकार का कारण है ?  क्या ये बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय जिसने कांग्रेस पार्टी के कथित 'सिंडिकेट' को  हाशिए पर धकेल दिया और इंदिरा गांधी की बेहद मजबूत कर दिया, के उलट  फैसला लेने के दुष्परिणामो का भय नहीं  है?

     यह समझना है दिलचस्प है की किन वजहों से  तत्कालीन सरकार ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय किया था ? और क्या वर्तमान में निजीकरण  की मांग करने वाले निजी क्षेत्र  ने स्वयं में आवश्यक सुधार कर लिए हैं ?

    आरबीआई के भारतीय बैंकिंग के इतिहास में तथ्य  है कि निजी क्षेत्र की बैंकों की अविश्वनियता एवं वर्ष 1947 से 1955 के बीच 361 निजी बैंकों की असफलता और प्राथमिक क्षेत्र की अनदेखी ने एक बेचैनी को जन्म दिया. लुटेरा पूंजीवाद फैलता जा रहा था. देश के 70% जमा को रखने के बावजूद बैंकिंग सुविधाओं के प्रसार को बैंक उत्सुक  नजर नहीं आते थे . मात्र 2 .3% कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी थी .बैंकों की जमा पूंजी का प्रयोग  व्यवसायिक परिवार जो इन के स्वामी थे अपनी ही अन्य कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए कर रहे थे.

    फिक्की के  वार्षिक अधिवेशन  में 15 मार्च 1969 इंदिरा गांधी ने कहा " निर्धनता एवं सम्पन्नता  ईश्वरप्रदत्त नहीं  है बल्कि मनुष्यकृत है . समाज में संकट की स्थिति है . पाखंड एवं अक्रियान्वित घोषणाओं के प्रति असंतोष फ़ैल  रहा है . अतः सरकारी एवं निजी क्षेत्र की सहभागिता एवं हिस्सेदारी आवश्यक है."

  वर्ष 1969 के मध्य में अखिल भारतीय कांग्रेस के सम्मेलन में सरकार की मंशा को इंदिरा गांधी ने  बैंको के राष्ट्रीयकरण पर पत्र प्रस्तुत कर जाहिर कर दिया था .इसे काफी उत्साह से लिया गया था.

   19 जुलाई 1969 को इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर दिए भाषण ने कहा "एक संगठन जैसे कि बैंकिंग क्षेत्र जो लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करता है और ऐसा होना भी चाहिए, को बड़े सामाजिक उद्देश्यों, राष्ट्रीय प्राथमिकताओं एवं लक्ष्यों को पूरा करने हेतु आवश्यक रूप से उन्मुख होना चाहिए. यह समय की मांग है बैंक न केवल सामाजिक रुप से संचालित हो बल्कि सार्वजनिक स्वामित्व में भी रहे." 

  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय जिन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया गया था उनमे प्रमुख है 1. बैंकों का सामाजिक सरोकार ,  2.निजी क्षेत्र निरंकुशता पर लगाम 3. बैंकिंग सेवाओं का विस्तार 4.क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना 5.प्राथमिक क्षेत्र की अधिक हिस्सेदारी .बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 10 वर्षों के भीतर की बैंक शाखाओं की संख्या 1969 में 8262 से बढ़कर 1979 में  30202 तक पहुंच गई थी .

  निजी क्षेत्र की निरंकुशता पर लगाम लगाने का एक और उदाहरण है. 1971 में भारत पाक युद्ध के दौरान विदेशी स्वामित्व वाली निजी तेल कंपनियों के भारतीय नौसेना एवं भारतीय वायु सेना को तेल की आपूर्ति के इंकार से सीख  लेते हुए  1974 में 1976 के बीच 3 विदेशी तेल कंपनियों का अधिग्रहण किया गया था जो सेना के लिए आवश्यक तेल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है.

   सार्वजनिक क्षेत्र की कार्य क्षमता को सुधारने एवं भ्रष्टाचार को रोकथाम के लिए निजीकरण का विकल्प चुनने के अपने जोखिम है .निजी क्षेत्र की कार्यप्रणाली अभी भी अपारदर्शी है . कार्य क्षमता एवं भ्रष्टाचार के मुद्दो से निजी क्षेत्र अछूता नहीं है . PACL 2015,, शारदा चिटफंड 2013, स्पीक एशिया 2011, सत्यम 2009, संजय अग्रवाल 2001, केतन पारेख 1999, हर्षद मेहता 1992, जैसे अनेक मामलो ने  निजी क्षेत्र की विश्वसनीयता को आघात पहुंचाया है . काफी  समय से सरकार निजी  क्षेत्र में व्याप्त उच्च एवं निम्न पदों  की वेतन असंगति को दूर करने की सलाह दे चुकी है. प्रधानमंत्री चार्टर्ड अकाउंटेंट्स को  इमानदारी से  काम करने की सलाह दे चुके हैं.


   सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार को रोकने एवं कार्य क्षमता को सुधारने के लिए निजीकरण एक सही विकल्प नहीं माना जा सकता बल्कि इसके लिए मौजूदा नियामक तंत्रो को कसने  की आवश्यकता है.